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एक मार्मिक प्रेम-कथा

चलो कविता लिखें और मस्ती करें
चलो कविता लिखें और मस्ती करें
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सरिता के तट पर एक बार
सहसा ही पहुँच गया था मैं
कारण था कोई खास नहीं
अपने गम में खोया था मैं
जब नज़र गई जल के अंदर
देखा एक बाला नहा रही
ग्रामीण वेश चंचल चितवन
जिससे वह मुझको निरख रही
आकर्षण उनके नयनों का
आकर्षित मुझको करता था
उन्मुक्त हंसी मासूम अदा
मन मेरा विचलित करता था
चोरी-चोरी चुपके-चुपके
कोई था मुझको खींच रहा
निष्ठुर बनकर निर्दयी कोई
मानो मेरा दिल भींच रहा
कटि क्षीण मगर उन्नत उरोज
भीगे बस्तों में लिपटा कर
लहराकर नागिन सी चोटी
आ गई सरोवर के तट पर
मिलते ही नज़र न जाने क्यूँ
कदली पत्तल सी काँप गई
शायद वह मेरी नज़रों का
नापाक इरादा भाँप गईं
शरमाकर सिमट गई ऐसे
जैसे हो कोई छुई-मुई
भोलेपन से मुँह फेर लिया
भीगी पलकों थी झुकी हुई
पहने तो नूतन वस्त्र मगर
आभा उसकी थी दमक रही
जैसे बरसाती मेघों में
चंचल बिजली हो चमक रही
निज सदन पयान किया उसने
दिल मेरा खिंचा जा रहा था
वे जान शरीर खड़ा था मैं
दिन में ही लुटा जा रहा था
कुछ दूर गई थी वह सहसा
चलते-चलते ठिठक गई
देखा पीछे मुड़कर उसने
जैसे अपना पथ भटक गई
नज़रों के मूक निमंत्रण से
वह देवी मुझको बुलाती थी
असहाय भाव था चेहरे पर
कुछ कहने से सकुचाती थी
खामोश लबों की बेताबी
मुझसे न देखी जाती थी
जैसे कोई अधिखिली कली
भँवरे पर झुकती जाती थी
तब तक सखियों के शब्द बाण
सुनते-सुनते वह हार गई
इसलिए बहारें साथ लिए
सखियों के साथ सिधार गई
घर लौटे तो हमने पाया
बेजान शरीर  हमारा है
अहसास मुझे यह होता था
मिटता सुख चैन हमारा है
वह दृश्य अभी तक आँखों से
मेरे न ओझल होता था
रह-रहकर मेरा चंचल मन
कुछ और भी चंचल होता था
आँखे फिर उसे देखने को
व्याकुल सी होती जाती थी
उसकी भोली-भाली सूरत
लखने को ये ललचाती थी
थी कौन कहाँ से आयी थी
कुछ भी तो समझ नहीं पाया
कुछ पता ठिकाना लिए बिना
दिल उसे अपना लुटा आया
उम्मींदों के सपने लेकर
फिर उसी जगह मैं पहुँच गया
जिस जगह एक दिन पहले थी
मेरा दिल मुझसे बिछुड़ गया
थे बहुत नहाने वाले पर
एक वही न अब तक आयी थी
वह चली गईं हो घर शायद
यह शंका ही दुखदायी थी
असमंजस की स्थिति में था
कुछ भी समझ में न आता था
घर लौट चलूँ या रुकूँ अभी
कोई न मुझे बतलाता था
वह आएगी या चली गई
आखिर हम पूंछे तो किससे
जिसका कोई परिचय न हो
फिर उसका पता लगे किससे
वह इंतजार की कठिन घड़ी
मुझसे न काटी जाती थी
मन व्याकुल होता जाता था
चिंता भी बढती जाती थी
उम्मींद मिलन की अब उससे
रह-रह कर घटती जाती थी
जैसे कि मौत-जिंदगी की
दूरी सी मिटती जाती थी
अनमने भाव से जैसे ही
मैंने वापस जाना चाहा
जैसे अपनों को तजकर
गैरो से हो मिलना चाहा
तब तक देखा कुछ दूरी पर
वह दौड़ी चली आ रही है
कुछ होश नहीं था सखियों का
वह आगे बढ़ी आ रही है
हमने भी अपने दिलबर के
क़दमों में आँख बिछा दी थी
नयनों को दर्शन करने की
सारी विधा बतला दी थी
वह चंद्रमुखी मृगनयनी फिर
थी मेरे पास चली आयी
जैसे कि भँवरे से मिलने
मधुबन से कोई कली आयी
लब थर-थर काँप रहे पर
प्रत्यक्ष न कुछ आवाज़ हुई
कुछ बोल नहीं पायी थी वह
केवल नयनों से बात हुई
दिल धाड़-धाड़ होकर बजता
नर्वस मैं होता जाता था
न जाने कैसा सम्मोहन सा
मुझ पर छाता जाता था
वह मेरी व्याकुलता लखकर
होंठों में ही मुस्काती थी
मानों वह मेरे बारे में
संतुष्ट सी होती जाती थी
अजनवी नहीं थे हम उसके
वह मुझसे परिचित लगती थी
यूँ उसने प्रकट किया जैसे
वह अक्सर मुझसे मिलती थी
परिचय उसका न पूँछ सका
तब तक सखियों ने घेर लिया
जैसे पूनम के चंदा को
राहू-केतु ने घेर लिया
हो शर्म से पानी वह
सखियों से आँख मिला न सकी
मिलना होगा फिर कब अपना
मुझको भी कुछ बतला न सकी
सखियों के संग तब उसने भी
अपने कुछ वस्त्र उतार दिए
उस अर्धनग्न चंचल बाला के
गाल शर्म से लाल हुए
मुझको अपना कुछ होश न था
बस उसे देखता जाता था
जिस चंद्रमुखी का सुन्दर तन
पानी में छिपता जाता था
इस मुलाकात से गद्-गद् हो
मैंने वापस मुड़ना चाहा
इस मधुर मिलन का पंख लगा
अम्बर में था उड़ना चाहा
लेकिन यह आकर्षण कैसा
जो मेरे पाँव रोकता था
हम दूर न हो उससे एक पल
मन मेरा यही सोंचता था
करके साहस मैंने अपने
पैरों के भार उठाये थे
जैसे कि उसके दर्शन हित
ही आज यहाँ हम आये थे
इस तरह कई दिन बीत गए
उस देवी के दर्शन करते
अफ़सोस यही न हो पाया
हम उससे कुछ बातें करते
एक दिवस उसी ने साहस कर
“तुम मेरे हो” यह कह डाला
कम्पित होंठो के प्रेम-मन्त्र ने
मुझको विचलित कर डाला
मैं कायर बनकर खड़ा रहा
“तुम भी मेरी हो” कह न सका
उस भोली-भाली बाला के
मन को कुछ धीरज दे न सका
बस इतना भी कह कर उसने
उस जगह पे आना छोड़ दिया
अपने इस पागल प्रेमी को
मझधार में लाकर छोड़ दिया
सोंचा था और कुछ दिनों तक
मिलना उससे संभव होगा
न समझ सका था यह शायद
दर्शन उसका दुर्लभ था
दिन रात उसी की यादों में
खोया-खोया सा सहता था
उस कोमलांगी प्राण प्रिया की
विरह वेदना सहता था
जितना सामित्प मिला उसका
उससे ज्यादा अब दूरी थी
उसकी यादों में रोना ही
शायद मेरी मजबूरी थी
फिर किसी तरह मैंने उसका
परिचय भी प्राप्त कर लिया था
गैरों का हाल पूंछ करके
अपनों का हाल ले लिया था
फिर भी उसके घर जाने की
हिम्मत मैं कभी जुटा न सका
“तुम भी मेरी हो” कहने की
जहमत मैं कभी उठा न सका
हम अनायास ही दिन प्रतिदिन
उन राहों पे आते-जाते
उन गलियों उन चौराहों का
चक्कर एक लगा आते
परिणाम यही की कभी-कभी
वह दर्शन को मिल जाती थी
मेरी इन रोती आँखों की
थोड़ी विपदा हर जाती थी
उस पावन प्रेम परीक्षा में
उत्तीर्ण नहीं मैं हो पाया
उस कोमलांगी प्राणप्रिया की
चाहत पर खरा न मैं हो पाया
मेरी निष्ठुरता के कारण
शायद वह रूठ गई होगी
हालात से तनहा लड़ न सकी
बेबस हो टूट गई होगी
यद्यपि ऐसे विचार मन मन में
प्रतिक्षण ही आते-जाते थे
फिर भी न जाने किस कारण
हम अपना वक्त गवांते थे
जिस अनदेखी पीड़ा की हम
करि पूर्व कल्पना रोते थे
उस विरह व्यथा के बढ़ने पर
हम रातों को नहीं सोते थे
कुछ समय इस तरह बीत गया
न प्यार की पेंगे बढ़ पाई
न मिलना उससे हुआ कभी
न वादे कसमें हो पायीं
थी सोंच यही मेरे मन की
कुछ तो उससे बातें होती
मौखिक यदि संभव नहीं है तो
कागज़ पर लिखकर ही होती
कागज और कलम हाथ में था
बस शब्द नहीं था लिख पाया
तब उसने भी प्रेम-पत्र
था सम्मुख मेरे पहुँचाया
तहरीरे पढ़ कर के उसकी
दिल धीरज न रख पाया
मेरी आँखों ने रो-रोकर
आंसू का सावन बरसाया
हे प्राणेश्वर! हे हृदयेश्वर!
यह प्रेम-पत्र स्वीकार करो
मेरी मजबूरी को प्रियतम
अब हँस-हँस के स्वीकार करो
दूँ दोष तुम्हे या किस्मत को
जिसने हमको है दूर किया
गैरों की बाँह थामने को
मुझ अबला को मजबूर किया
उम्मींद नहीं थी यह तुमसे
कायर बनकर डर जाओगे
सोंचा था हाथ मांगने को
तूम मेरे घर आ जाओगे
बस आज रात बाबुल के घर
तेरी याद रुलाएगी
होते ही भोर पिया के संग
तेरी मैना उड़ जायेगी
ओ छलिया साजन बेदर्दी!
ओ निर्मोही! ओ हरजाई!
न जाने क्यूँ अब तक तुमको
मेरी याद नहीं आयी
अलविदा तुम्हे मेरे प्रियतम
तन का बिछोह स्वीकार करो
देवता मेरे मंदिर के
मानस पूजा स्वीकार करो
यह प्रेम-पत्र के शब्द नहीं
यह तो बिछोह के काँटे थे
जिसने मेरे दिल के टुकड़े
अगणित खण्डों में बाटें थे
बस यही नहीं कुछ और भी तो
उसने ही शर्त लिखी नीचे
सौगंध तुम्हे मेरा प्रियतम
अब पड़ना नहीं मेरे पीछे
मैं समझ रही हूँ भली-भांति
तुम मेरी कसम न तोडोगे
खुशियों का छोड़ आसरा अब
गम से ही नाता जोड़ोगे
बंध गए थे हाथ अब मेरे
सौगंध निभाना था मुझको
अब छोड़ आसरा खुशियों का
गम गले लगाना था मुझको
संदेह नहीं था इसमें कुछ
उस समय भी मैं अपना लेता
गैरों से बाँह छीन उसकी
अपने मैं गले लगा लेता
लेकिन कैसी बेबसी हाय
भल-भल कर पछताता था
उस चंचल चितवन का प्रेमी
कुछ करने को अकुलाता था
पर कसम तोड़ देना भी तो
था मेरे बस का काम नहीं
उस आशा की अभिलाषा का
खंडन करना आसान नहीं
अतएव भाग्य का दोष समझ
अपना कर्तव्य निभाना था
जो भूल-भूल से कर बैठा
उसका प्रतिकार चुकाना था
आँधी बनकर जो आयी थी
तूफां बनकर वह चली गयी
लाई थी चमन साथ में जो
पतझड़ में छोड़ के चली गयी
मन को था संबल दिया बहुत
पर व्यर्थ न यह गम सह पाया
अब तो मेरे इस जीवन में
गम का बादल था घिर आया
वीरान जिंदगी में मेरे
अब हलचल बहुत बढ़ गई थी
गम के तूफान भयंकर में
अब किश्ती मेरी फंस गई थी
देव दोष देकर मैंने
अपना कर्तव्य निभा डाला
उस प्राण-प्रिया के जीवन में
विष मैंने आज मिला डाला
इस भाँती हमारी जीवन निधि
थी सदा को मुझसे दूर हुई
जो सपना बनकर आई थी
सच्चाई बनकर दूर हुई
सोंचा था हमने वक्त सभी
घावों का मरहम होता है
न सोंच सका था यही वक्त
नासूर भी शायद होता है
वो हमसे दूर हुई तो क्या
हम उससे दूर न हो पाये
महफिल में भले हँसे पर
तनहा होकर न हँस पाये
हर समय उसी की यादों में हम
खोये-खोये सहते थे
हर समय जुदाई के सदमे
हम चुपके-चुपके सहते थे
हे देव! कभी इस जीवन में
उसका सामीन्य अगर मिला
मैं अपनी व्यथा-कथाओं का
संक्षिप्त रूप ही कह लेता
बस इसी तरह से जीवन की
मैं रश्म निभाया करता था
इस नीरस जीवन को अपने
मैं सरस बनाया करता था
इस तुच्छ तृप्ति का अंकुर भी
बिन सलिल सूखता जाता था
हर पल, हर क्षण, हर रैन-दिवस
मन ही मन मैं अकुलाता था
इस व्यकुता के कारण ही
मैं और टूटता जाता था
पिछली कायरता सोंच-सोंच
मेरा दम घुटता जाता था
लेकिन मेरे हिय की गति से
अब तक मुंह मोड़ चुकी थी वह
मुझ जैसे कायर प्रेमी से
हर रिश्ता तोड़ चुकी थी वह
इसका अहसास मुझे उस दिन
हो गया, मुझे जब मिली पुनः
वह रूप कमल सी लगती थी
हो खिली कली ज्यों आज सुबह
बाबुल घर तीज मानाने को
प्रिय के घर के वह आयी थी
वह स्वर्ण परी फिर अनायास
मुझको तड़पाने आयी थी
मैं भी उन आँखों में अपना
स्थान खोजने आया था
जो बहुत दिनों से था मन में
वह व्यथा बताने आया था
लेकिन उसके सम्मुख होकर
उन आँखों में झाँक सका
जिस आँखों का दीवाना था
उन आँखों में न झाँक सका
नज़रों से नजरों की चोरी
छुप सकी कहाँ जो छुप जाती
वह मेरे नज़र चुराने से
कुछ मंद-मंद थी मुस्काती
कुछ देर मेरी दयनीय दशा
को देख-देख वह हँसती थी
फिर कानों ने कुछ और सुना
जो शायद मुझसे कहती थी
मेरे सपनों के सह्जादे
मेरे अतीत के राजकुंअर
तेरा गम मुझसे छिपा नहीं
तेरे गम की है मुझे खबर
दुर्भाग्य हमारा ही था जो
मैं तेरी प्रिया न बन पायी
तेरे इन चरणों में अपना
जीवन अर्पण न कर पायी
इसलिए दुखी होकर अब तो
न मुझे और भी तड़पाओ
जो बीत गया वह सपना था
बीती बातों को बिसराओ
हो चुकी परायी हूँ अब मैं
अब मेरा पूज्य मेरा पति है
उसके चरणों में अब तो
है स्वर्ग मेरा और सद्गति है
इसलिए मेरे चितचोर मेरी
दयनीय दशा पर रहम करो
मुझको पथ भ्रष्ट न होने दो
बस इतना मुझ पर रहम करो
लो रोंक आंसुओ को अपने
बिधि के विधान को मत तोड़ो
हो चुकी परायी चीज है जो
हे साजन! उससे मुख मोड़ो
इतना कहकर वह सिसक उठी
करुणामय वक्त हो गया था
कुछ कहने से पहले सुनकर
आकुल उस वक्त हो गया था
उन आँखों का इन हाथों से
आंसू भी मैं न पोंछ सका
कैसे उसको धीरज दूँ मैं
उस वक्त नहीं मैं सोंच सका
लेकिन अपने हिय की प्रिय से
कहने का अच्छा अवसर था
अपनी अभिलाषा मिटाने का
शायद वह स्वर्णिम अवसर था
ये पगली मेरी दीवानी सुन
बस यही मेरी कामना है
मैं आँसू तेरे पोंछ सकूँ
उर में बस यही साधना है
सीने से लगाकर एक बार
कह दो हे देवी बस इतना
जा तुझको मैंने माफ किया
पूरा हो जाये मेरा सपना
विधि के उस अनुपम रचना की
नयनों की ज्योति हुई फींकी
मेरे शब्दों से घायल हो
वह आहत दिल होकर चीखी
ओ मेरे मन के अधिराजा!
ओ मेरे जलवों के प्रेमी!
आराध्य मेरे मन-मंदिर के
ओ मेरी पूजा के प्रेमी!
मैं अबला हूँ दुखियारी हूँ
न मेरी और परीक्षा लो
दीवानी हूँ तेरी प्रियतम
न मेरी अग्नि परीक्षा लो
मिलकर बस गले तेरे प्रियतम
बुझती है दिल की प्यास नहीं
भड़केगी तब तन की ज्वाला
होगा जब कोई पास नहीं
प्यासी सरिता यदि सागर से
व्याकुल होकरके मिल जाए
तो सागर भी यह चाहेगा
बस यूँ ही वक्त ठहर जाए
इसलिए विचार उचित-अनुचित
रोको अपनी इस इच्छा को
मैं आँसू स्वयं पोंछ लुंगी
भूलो मत हरि की इच्छा को
सपनो का सपना रहने दो
मत उसे यथार्थ बनाओ तुम
जो प्रिया किसी की पत्नी है
उसको मत गले लगाओ तुम
सुनकर उसके आदर्श वाक्य
मन ही मन अकुलाता था
अभिप्राय समझ कर मैं उसका
परिणाम से ही घबराता था
सचमुच यदि सोंच उसकी
कायम भविष्य में रह जाए
तो संभव है इस जीवन में
मुझसे हर खुशी रूठ जाये
नादां है बहुत जो उल्फत में
करते हैं बाते राहत की
वह कष्ट सभी सह लेते हैं
है शौक जिन्हें कुछ चाहत की
इसलिए प्यार की राहों में
कुछ पाने की मत चाह करो
जो दुर्लभ है उसके खातिर
अब व्यर्थ और न आह भरो
मेरे बचपन के प्यार सुनो
दो आज्ञा मैं घर जाऊँगी
सच है अपने इस जीवन में
न भूल तुम्हे मैं पाऊँगी
जाती हूँ हंसकर विदा करो
मर मेरे धर्य, धर्म तोड़ो
हँस करके राह जुदा करो
अब अपनी कायरता छोड़ो
यह पराकाष्ठा प्यार की है
जो मुझको बहुत तडपायेगी
मैं जितना तुम्हे भूलाता हूँ
तू उतना मुझे रुलाती है
यद्यपि मैंने तेरी पीड़ा
तुझसे ज्यादा महसूस किया
तेरी हर एक मजबूरी में
खुद को है मजबूर किया
यदि अब भी यही चाहती हो
मेरी राहें हो जाये जुदा
यदि सचमुच सोंच रहती कायम
तो सचमुच हम-तुम हुए जुदा
फिर भी हम अपने जीवन में
क्या एक दूजे को भूलेंगे
सच कहती हो क्या तुम और हम
अपनी यह इच्छा भूलेंगे
तुम नारी हो तुझमे अनंत
बलिदान त्याग है हिम्मत है
लेकिन मैं तुहे न भूल पाऊं
ऐसी मुझमे न हिम्मत है
कायर कह लो या और भी कुछ
उप नाम मुझे दे सकती हो
पर दिल के अरमा को अपने
इनकार नहीं कर सकती हो
यह धर्म सनातन शाश्वत है
यह वेद शास्त्र की शिक्षा है
अनुचित है सदा त्याज्य है यह
जो हम दोनों की इच्छा है
फिर भी मेरे जीवन के
श्रृंगार सृजन करने वाले
ये मेरे बचपन के साथी
मेरी इच्छा रखने वाले
छोटी होकर मैंने तुमको
उपदेश व्यर्थ ही दे डाले
निश्चित ही मुझसे भूल हुई
जो तुम पर यह बंधन डाले
यदि त्याग प्रेम का पूरक है
तो उभय पक्ष ही त्यागी हो
इक दूजे की इच्छाओं के
सहयोगी हो अनुरागी हो
मैने निश्चय ही स्वार्थ भाव से
प्रेरित होकर उपदेश दिए
वह तर्क बहुत ही थोड़े थे
जो अब तक मैंने पेश किये
सच है कि त्याग तुम्हे ही क्यों
हमको भी तो करना होगा
निज धर्म गवांकर भी तेरी
इच्छा मुझको रखना होगा
अब छोड़ विचार उचित-अनुचित
कुछ त्याग आज करना होगा
निज इष्टदेव के चरणों में
खुद को अर्पण करना होगा
प्रस्तुत हूँ आज तुम्हारे हित
पूरी कर लो इच्छा राजा
न कहना मुझे स्वार्थी अब
आ गले लगा लो हे राजा
ठहरो हे देवी! तनिक ठहरो
तुम प्रेम परीक्षा पास हुई
जो आग लगी थी सीने में
अब उस पर है बरसात हुई
बस यही भावना थी उर में
मम प्रिया समर्पण कर देती
खुद पर मेरा हक आज समझ कभी
वह सब कुछ अर्पण कर देती
मैं इतना नहीं अनाड़ी हूँ
जो ऐसा अत्याचार करूँ
दुनियां की बातें कौन करे
खुद की नज़रों में पाप करूँ
यह बात अलग है कि तेरे
जीवन में जहाँ मोड़ आए
वादा है उस चौराहे पर
तू आशीष को सदा खड़ा पाये
लखकर तेरा आदर्श आज
मैं वादा करती हूँ राजा
जीवन में कब भी चाहोगे
मैं मिलने आउंगी राजा
जब भी चाहो अर्पित हूँ
तन-मन जो कुछ है तेरा है
“तुम मेरी हो” “मैं तेरा हूँ”
अब अपना नया सवेरा है…..

सभी मंच के बंधुओ, अग्रजों और मित्रों का यथावत अभिवादन. बहुत दिनों बाद वापसी के लिए क्षमा चाहता हूँ. साथ ही एक अनुरोध करता हूँ कि, कृपया इस कविता को तब पढ़ें जब आपके पास पूर्ण समय हो, क्योंकि कविता लम्बी है और अर्थ अंत में निकलेगा. अतः आप मेरी प्रार्थना को अवश्य ध्यान रखियेगा.

सरिता के तट पर एक बार

सहसा ही पहुँच गया था मैं

कारण था कोई खास नहीं

अपने गम में खोया था मैं

जब नज़र गई जल के अंदर

देखा एक बाला नहा रही

ग्रामीण वेश चंचल चितवन

जिससे वह मुझको निरख रही

आकर्षण उनके नयनों का

आकर्षित मुझको करता था

उन्मुक्त हंसी मासूम अदा

मन मेरा विचलित करता था

चोरी-चोरी चुपके-चुपके

कोई था मुझको खींच रहा

निष्ठुर बनकर निर्दयी कोई

मानो मेरा दिल भींच रहा

कटि क्षीण मगर उन्नत उरोज

भीगे बस्तों में लिपटा कर

लहराकर नागिन सी चोटी

आ गई सरोवर के तट पर

मिलते ही नज़र न जाने क्यूँ

कदली पत्तल सी काँप गई

शायद वह मेरी नज़रों का

नापाक इरादा भाँप गईं

शरमाकर सिमट गई ऐसे

जैसे हो कोई छुई-मुई

भोलेपन से मुँह फेर लिया

भीगी पलकों थी झुकी हुई

पहने तो नूतन वस्त्र मगर

आभा उसकी थी दमक रही

जैसे बरसाती मेघों में

चंचल बिजली हो चमक रही

निज सदन पयान किया उसने

दिल मेरा खिंचा जा रहा था

वे जान शरीर खड़ा था मैं

दिन में ही लुटा जा रहा था

कुछ दूर गई थी वह सहसा

चलते-चलते ठिठक गई

देखा पीछे मुड़कर उसने

जैसे अपना पथ भटक गई

नज़रों के मूक निमंत्रण से

वह देवी मुझको बुलाती थी

असहाय भाव था चेहरे पर

कुछ कहने से सकुचाती थी

खामोश लबों की बेताबी

मुझसे न देखी जाती थी

जैसे कोई अधिखिली कली

भँवरे पर झुकती जाती थी

तब तक सखियों के शब्द बाण

सुनते-सुनते वह हार गई

इसलिए बहारें साथ लिए

सखियों के साथ सिधार गई

घर लौटे तो हमने पाया

बेजान शरीर  हमारा है

अहसास मुझे यह होता था

मिटता सुख चैन हमारा है

वह दृश्य अभी तक आँखों से

मेरे न ओझल होता था

रह-रहकर मेरा चंचल मन

कुछ और भी चंचल होता था

आँखे फिर उसे देखने को

व्याकुल सी होती जाती थी

उसकी भोली-भाली सूरत

लखने को ये ललचाती थी

थी कौन कहाँ से आयी थी

कुछ भी तो समझ नहीं पाया

कुछ पता ठिकाना लिए बिना

दिल उसे अपना लुटा आया

उम्मींदों के सपने लेकर

फिर उसी जगह मैं पहुँच गया

जिस जगह एक दिन पहले थी

मेरा दिल मुझसे बिछुड़ गया

थे बहुत नहाने वाले पर

एक वही न अब तक आयी थी

वह चली गईं हो घर शायद

यह शंका ही दुखदायी थी

असमंजस की स्थिति में था

कुछ भी समझ में न आता था

घर लौट चलूँ या रुकूँ अभी

कोई न मुझे बतलाता था

वह आएगी या चली गई

आखिर हम पूंछे तो किससे

जिसका कोई परिचय न हो

फिर उसका पता लगे किससे

वह इंतजार की कठिन घड़ी

मुझसे न काटी जाती थी

मन व्याकुल होता जाता था

चिंता भी बढती जाती थी

उम्मींद मिलन की अब उससे

रह-रह कर घटती जाती थी

जैसे कि मौत-जिंदगी की

दूरी सी मिटती जाती थी

अनमने भाव से जैसे ही

मैंने वापस जाना चाहा

जैसे अपनों को तजकर

गैरो से हो मिलना चाहा

तब तक देखा कुछ दूरी पर

वह दौड़ी चली आ रही है

कुछ होश नहीं था सखियों का

वह आगे बढ़ी आ रही है

हमने भी अपने दिलबर के

क़दमों में आँख बिछा दी थी

नयनों को दर्शन करने की

सारी विधा बतला दी थी

वह चंद्रमुखी मृगनयनी फिर

थी मेरे पास चली आयी

जैसे कि भँवरे से मिलने

मधुबन से कोई कली आयी

लब थर-थर काँप रहे पर

प्रत्यक्ष न कुछ आवाज़ हुई

कुछ बोल नहीं पायी थी वह

केवल नयनों से बात हुई

दिल धाड़-धाड़ होकर बजता

नर्वस मैं होता जाता था

न जाने कैसा सम्मोहन सा

मुझ पर छाता जाता था

वह मेरी व्याकुलता लखकर

होंठों में ही मुस्काती थी

मानों वह मेरे बारे में

संतुष्ट सी होती जाती थी

अजनवी नहीं थे हम उसके

वह मुझसे परिचित लगती थी

यूँ उसने प्रकट किया जैसे

वह अक्सर मुझसे मिलती थी

परिचय उसका न पूँछ सका

तब तक सखियों ने घेर लिया

जैसे पूनम के चंदा को

राहू-केतु ने घेर लिया

हो शर्म से पानी वह

सखियों से आँख मिला न सकी

मिलना होगा फिर कब अपना

मुझको भी कुछ बतला न सकी

सखियों के संग तब उसने भी

अपने कुछ वस्त्र उतार दिए

उस अर्धनग्न चंचल बाला के

गाल शर्म से लाल हुए

मुझको अपना कुछ होश न था

बस उसे देखता जाता था

जिस चंद्रमुखी का सुन्दर तन

पानी में छिपता जाता था

इस मुलाकात से गद्-गद् हो

मैंने वापस मुड़ना चाहा

इस मधुर मिलन का पंख लगा

अम्बर में था उड़ना चाहा

लेकिन यह आकर्षण कैसा

जो मेरे पाँव रोकता था

हम दूर न हो उससे एक पल

मन मेरा यही सोंचता था

करके साहस मैंने अपने

पैरों के भार उठाये थे

जैसे कि उसके दर्शन हित

ही आज यहाँ हम आये थे

इस तरह कई दिन बीत गए

उस देवी के दर्शन करते

अफ़सोस यही न हो पाया

हम उससे कुछ बातें करते

एक दिवस उसी ने साहस कर

“तुम मेरे हो” यह कह डाला

कम्पित होंठो के प्रेम-मन्त्र ने

मुझको विचलित कर डाला

मैं कायर बनकर खड़ा रहा

“तुम भी मेरी हो” कह न सका

उस भोली-भाली बाला के

मन को कुछ धीरज दे न सका

बस इतना भी कह कर उसने

उस जगह पे आना छोड़ दिया

अपने इस पागल प्रेमी को

मझधार में लाकर छोड़ दिया

सोंचा था और कुछ दिनों तक

मिलना उससे संभव होगा

न समझ सका था यह शायद

दर्शन उसका दुर्लभ था

दिन रात उसी की यादों में

खोया-खोया सा सहता था

उस कोमलांगी प्राण प्रिया की

विरह वेदना सहता था

जितना सामित्प मिला उसका

उससे ज्यादा अब दूरी थी

उसकी यादों में रोना ही

शायद मेरी मजबूरी थी

फिर किसी तरह मैंने उसका

परिचय भी प्राप्त कर लिया था

गैरों का हाल पूंछ करके

अपनों का हाल ले लिया था

फिर भी उसके घर जाने की

हिम्मत मैं कभी जुटा न सका

“तुम भी मेरी हो” कहने की

जहमत मैं कभी उठा न सका

हम अनायास ही दिन प्रतिदिन

उन राहों पे आते-जाते

उन गलियों उन चौराहों का

चक्कर एक लगा आते

परिणाम यही की कभी-कभी

वह दर्शन को मिल जाती थी

मेरी इन रोती आँखों की

थोड़ी विपदा हर जाती थी

उस पावन प्रेम परीक्षा में

उत्तीर्ण नहीं मैं हो पाया

उस कोमलांगी प्राणप्रिया की

चाहत पर खरा न मैं हो पाया

मेरी निष्ठुरता के कारण

शायद वह रूठ गई होगी

हालात से तनहा लड़ न सकी

बेबस हो टूट गई होगी

यद्यपि ऐसे विचार मन मन में

प्रतिक्षण ही आते-जाते थे

फिर भी न जाने किस कारण

हम अपना वक्त गवांते थे

जिस अनदेखी पीड़ा की हम

करि पूर्व कल्पना रोते थे

उस विरह व्यथा के बढ़ने पर

हम रातों को नहीं सोते थे

कुछ समय इस तरह बीत गया

न प्यार की पेंगे बढ़ पाई

न मिलना उससे हुआ कभी

न वादे कसमें हो पायीं

थी सोंच यही मेरे मन की

कुछ तो उससे बातें होती

मौखिक यदि संभव नहीं है तो

कागज़ पर लिखकर ही होती

कागज और कलम हाथ में था

बस शब्द नहीं था लिख पाया

तब उसने भी प्रेम-पत्र

था सम्मुख मेरे पहुँचाया

तहरीरे पढ़ कर के उसकी

दिल धीरज न रख पाया

मेरी आँखों ने रो-रोकर

आंसू का सावन बरसाया

हे प्राणेश्वर! हे हृदयेश्वर!

यह प्रेम-पत्र स्वीकार करो

मेरी मजबूरी को प्रियतम

अब हँस-हँस के स्वीकार करो

दूँ दोष तुम्हे या किस्मत को

जिसने हमको है दूर किया

गैरों की बाँह थामने को

मुझ अबला को मजबूर किया

उम्मींद नहीं थी यह तुमसे

कायर बनकर डर जाओगे

सोंचा था हाथ मांगने को

तूम मेरे घर आ जाओगे

बस आज रात बाबुल के घर

तेरी याद रुलाएगी

होते ही भोर पिया के संग

तेरी मैना उड़ जायेगी

ओ छलिया साजन बेदर्दी!

ओ निर्मोही! ओ हरजाई!

न जाने क्यूँ अब तक तुमको

मेरी याद नहीं आयी

अलविदा तुम्हे मेरे प्रियतम

तन का बिछोह स्वीकार करो

देवता मेरे मंदिर के

मानस पूजा स्वीकार करो

यह प्रेम-पत्र के शब्द नहीं

यह तो बिछोह के काँटे थे

जिसने मेरे दिल के टुकड़े

अगणित खण्डों में बाटें थे

बस यही नहीं कुछ और भी तो

उसने ही शर्त लिखी नीचे

सौगंध तुम्हे मेरा प्रियतम

अब पड़ना नहीं मेरे पीछे

मैं समझ रही हूँ भली-भांति

तुम मेरी कसम न तोडोगे

खुशियों का छोड़ आसरा अब

गम से ही नाता जोड़ोगे

बंध गए थे हाथ अब मेरे

सौगंध निभाना था मुझको

अब छोड़ आसरा खुशियों का

गम गले लगाना था मुझको

संदेह नहीं था इसमें कुछ

उस समय भी मैं अपना लेता

गैरों से बाँह छीन उसकी

अपने मैं गले लगा लेता

लेकिन कैसी बेबसी हाय

भल-भल कर पछताता था

उस चंचल चितवन का प्रेमी

कुछ करने को अकुलाता था

पर कसम तोड़ देना भी तो

था मेरे बस का काम नहीं

उस आशा की अभिलाषा का

खंडन करना आसान नहीं

अतएव भाग्य का दोष समझ

अपना कर्तव्य निभाना था

जो भूल-भूल से कर बैठा

उसका प्रतिकार चुकाना था

आँधी बनकर जो आयी थी

तूफां बनकर वह चली गयी

लाई थी चमन साथ में जो

पतझड़ में छोड़ के चली गयी

मन को था संबल दिया बहुत

पर व्यर्थ न यह गम सह पाया

अब तो मेरे इस जीवन में

गम का बादल था घिर आया

वीरान जिंदगी में मेरे

अब हलचल बहुत बढ़ गई थी

गम के तूफान भयंकर में

अब किश्ती मेरी फंस गई थी

देव दोष देकर मैंने

अपना कर्तव्य निभा डाला

उस प्राण-प्रिया के जीवन में

विष मैंने आज मिला डाला

इस भाँती हमारी जीवन निधि

थी सदा को मुझसे दूर हुई

जो सपना बनकर आई थी

सच्चाई बनकर दूर हुई

सोंचा था हमने वक्त सभी

घावों का मरहम होता है

न सोंच सका था यही वक्त

नासूर भी शायद होता है

वो हमसे दूर हुई तो क्या

हम उससे दूर न हो पाये

महफिल में भले हँसे पर

तनहा होकर न हँस पाये

हर समय उसी की यादों में हम

खोये-खोये सहते थे

हर समय जुदाई के सदमे

हम चुपके-चुपके सहते थे

हे देव! कभी इस जीवन में

उसका सामीन्य अगर मिला

मैं अपनी व्यथा-कथाओं का

संक्षिप्त रूप ही कह लेता

बस इसी तरह से जीवन की

मैं रश्म निभाया करता था

इस नीरस जीवन को अपने

मैं सरस बनाया करता था

इस तुच्छ तृप्ति का अंकुर भी

बिन सलिल सूखता जाता था

हर पल, हर क्षण, हर रैन-दिवस

मन ही मन मैं अकुलाता था

इस व्यकुता के कारण ही

मैं और टूटता जाता था

पिछली कायरता सोंच-सोंच

मेरा दम घुटता जाता था

लेकिन मेरे हिय की गति से

अब तक मुंह मोड़ चुकी थी वह

मुझ जैसे कायर प्रेमी से

हर रिश्ता तोड़ चुकी थी वह

इसका अहसास मुझे उस दिन

हो गया, मुझे जब मिली पुनः

वह रूप कमल सी लगती थी

हो खिली कली ज्यों आज सुबह

बाबुल घर तीज मानाने को

प्रिय के घर के वह आयी थी

वह स्वर्ण परी फिर अनायास

मुझको तड़पाने आयी थी

मैं भी उन आँखों में अपना

स्थान खोजने आया था

जो बहुत दिनों से था मन में

वह व्यथा बताने आया था

लेकिन उसके सम्मुख होकर

उन आँखों में झाँक सका

जिस आँखों का दीवाना था

उन आँखों में न झाँक सका

नज़रों से नजरों की चोरी

छुप सकी कहाँ जो छुप जाती

वह मेरे नज़र चुराने से

कुछ मंद-मंद थी मुस्काती

कुछ देर मेरी दयनीय दशा

को देख-देख वह हँसती थी

फिर कानों ने कुछ और सुना

जो शायद मुझसे कहती थी

मेरे सपनों के सह्जादे

मेरे अतीत के राजकुंअर

तेरा गम मुझसे छिपा नहीं

तेरे गम की है मुझे खबर

दुर्भाग्य हमारा ही था जो

मैं तेरी प्रिया न बन पायी

तेरे इन चरणों में अपना

जीवन अर्पण न कर पायी

इसलिए दुखी होकर अब तो

न मुझे और भी तड़पाओ

जो बीत गया वह सपना था

बीती बातों को बिसराओ

हो चुकी परायी हूँ अब मैं

अब मेरा पूज्य मेरा पति है

उसके चरणों में अब तो

है स्वर्ग मेरा और सद्गति है

इसलिए मेरे चितचोर मेरी

दयनीय दशा पर रहम करो

मुझको पथ भ्रष्ट न होने दो

बस इतना मुझ पर रहम करो

लो रोंक आंसुओ को अपने

बिधि के विधान को मत तोड़ो

हो चुकी परायी चीज है जो

हे साजन! उससे मुख मोड़ो

इतना कहकर वह सिसक उठी

करुणामय वक्त हो गया था

कुछ कहने से पहले सुनकर

आकुल उस वक्त हो गया था

उन आँखों का इन हाथों से

आंसू भी मैं न पोंछ सका

कैसे उसको धीरज दूँ मैं

उस वक्त नहीं मैं सोंच सका

लेकिन अपने हिय की प्रिय से

कहने का अच्छा अवसर था

अपनी अभिलाषा मिटाने का

शायद वह स्वर्णिम अवसर था

ये पगली मेरी दीवानी सुन

बस यही मेरी कामना है

मैं आँसू तेरे पोंछ सकूँ

उर में बस यही साधना है

सीने से लगाकर एक बार

कह दो हे देवी बस इतना

जा तुझको मैंने माफ किया

पूरा हो जाये मेरा सपना

विधि के उस अनुपम रचना की

नयनों की ज्योति हुई फींकी

मेरे शब्दों से घायल हो

वह आहत दिल होकर चीखी

ओ मेरे मन के अधिराजा!

ओ मेरे जलवों के प्रेमी!

आराध्य मेरे मन-मंदिर के

ओ मेरी पूजा के प्रेमी!

मैं अबला हूँ दुखियारी हूँ

न मेरी और परीक्षा लो

दीवानी हूँ तेरी प्रियतम

न मेरी अग्नि परीक्षा लो

मिलकर बस गले तेरे प्रियतम

बुझती है दिल की प्यास नहीं

भड़केगी तब तन की ज्वाला

होगा जब कोई पास नहीं

प्यासी सरिता यदि सागर से

व्याकुल होकरके मिल जाए

तो सागर भी यह चाहेगा

बस यूँ ही वक्त ठहर जाए

इसलिए विचार उचित-अनुचित

रोको अपनी इस इच्छा को

मैं आँसू स्वयं पोंछ लुंगी

भूलो मत हरि की इच्छा को

सपनो का सपना रहने दो

मत उसे यथार्थ बनाओ तुम

जो प्रिया किसी की पत्नी है

उसको मत गले लगाओ तुम

सुनकर उसके आदर्श वाक्य

मन ही मन अकुलाता था

अभिप्राय समझ कर मैं उसका

परिणाम से ही घबराता था

सचमुच यदि सोंच उसकी

कायम भविष्य में रह जाए

तो संभव है इस जीवन में

मुझसे हर खुशी रूठ जाये

नादां है बहुत जो उल्फत में

करते हैं बाते राहत की

वह कष्ट सभी सह लेते हैं

है शौक जिन्हें कुछ चाहत की

इसलिए प्यार की राहों में

कुछ पाने की मत चाह करो

जो दुर्लभ है उसके खातिर

अब व्यर्थ और न आह भरो

मेरे बचपन के प्यार सुनो

दो आज्ञा मैं घर जाऊँगी

सच है अपने इस जीवन में

न भूल तुम्हे मैं पाऊँगी

जाती हूँ हंसकर विदा करो

मर मेरे धर्य, धर्म तोड़ो

हँस करके राह जुदा करो

अब अपनी कायरता छोड़ो

यह पराकाष्ठा प्यार की है

जो मुझको बहुत तडपायेगी

मैं जितना तुम्हे भूलाता हूँ

तू उतना मुझे रुलाती है

यद्यपि मैंने तेरी पीड़ा

तुझसे ज्यादा महसूस किया

तेरी हर एक मजबूरी में

खुद को है मजबूर किया

यदि अब भी यही चाहती हो

मेरी राहें हो जाये जुदा

यदि सचमुच सोंच रहती कायम

तो सचमुच हम-तुम हुए जुदा

फिर भी हम अपने जीवन में

क्या एक दूजे को भूलेंगे

सच कहती हो क्या तुम और हम

अपनी यह इच्छा भूलेंगे

तुम नारी हो तुझमे अनंत

बलिदान त्याग है हिम्मत है

लेकिन मैं तुहे न भूल पाऊं

ऐसी मुझमे न हिम्मत है

कायर कह लो या और भी कुछ

उप नाम मुझे दे सकती हो

पर दिल के अरमा को अपने

इनकार नहीं कर सकती हो

यह धर्म सनातन शाश्वत है

यह वेद शास्त्र की शिक्षा है

अनुचित है सदा त्याज्य है यह

जो हम दोनों की इच्छा है

फिर भी मेरे जीवन के

श्रृंगार सृजन करने वाले

ये मेरे बचपन के साथी

मेरी इच्छा रखने वाले

छोटी होकर मैंने तुमको

उपदेश व्यर्थ ही दे डाले

निश्चित ही मुझसे भूल हुई

जो तुम पर यह बंधन डाले

यदि त्याग प्रेम का पूरक है

तो उभय पक्ष ही त्यागी हो

इक दूजे की इच्छाओं के

सहयोगी हो अनुरागी हो

मैने निश्चय ही स्वार्थ भाव से

प्रेरित होकर उपदेश दिए

वह तर्क बहुत ही थोड़े थे

जो अब तक मैंने पेश किये

सच है कि त्याग तुम्हे ही क्यों

हमको भी तो करना होगा

निज धर्म गवांकर भी तेरी

इच्छा मुझको रखना होगा

अब छोड़ विचार उचित-अनुचित

कुछ त्याग आज करना होगा

निज इष्टदेव के चरणों में

खुद को अर्पण करना होगा

प्रस्तुत हूँ आज तुम्हारे हित

पूरी कर लो इच्छा राजा

न कहना मुझे स्वार्थी अब

आ गले लगा लो हे राजा

ठहरो हे देवी! तनिक ठहरो

तुम प्रेम परीक्षा पास हुई

जो आग लगी थी सीने में

अब उस पर है बरसात हुई

बस यही भावना थी उर में

मम प्रिया समर्पण कर देती

खुद पर मेरा हक आज समझ कभी

वह सब कुछ अर्पण कर देती

मैं इतना नहीं अनाड़ी हूँ

जो ऐसा अत्याचार करूँ

दुनियां की बातें कौन करे

खुद की नज़रों में पाप करूँ

यह बात अलग है कि तेरे

जीवन में जहाँ मोड़ आए

वादा है उस चौराहे पर

तू आशीष को सदा खड़ा पाये

लखकर तेरा आदर्श आज

मैं वादा करती हूँ राजा

जीवन में कब भी चाहोगे

मैं मिलने आउंगी राजा

जब भी चाहो अर्पित हूँ

तन-मन जो कुछ है तेरा है

“तुम मेरी हो” “मैं तेरा हूँ”

अब अपना नया सवेरा है…..

सम्पूर्ण कविता पढ़ने के लिए आभार…….

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