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दर्द-ए-हिमालय

चलो कविता लिखें और मस्ती करें
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बंधुओं! अभी हाल ही में (9 सितम्बर) को हमारे पर्यावरणीयविदों ने “हिमालय-दिवस” मानाने का निश्चय किया है.हिमालय युगों-युगों से भारत के गौरवमयी इतिहास की गाथा गाते हुए अपने स्वाभिमान की रक्षा कर रहा है. परन्तु अब लगता है भारत की शर्मनाक घटनाओं और भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण हिमालय भारत से दूरी बना रहा है.वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय 5-6 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष वर्ष उत्तर की ओर खिसकक रहा है.

हिमालय एक परिचय-

हिमालय किसी परिचय का मोहताज नहीं, फिर भी अपना कर्तव्य समझकर लिख रहा हूँ. हिमालय संस्कृत के हिम तथा आलय (हिम+आलय= हिमालय) दो शब्दों से मिल कर बना है, जिसका शब्दार्थ बर्फ का घर होता है। हिमालय नेपाल और भारत का धरोहर है। हिमालय की आयु लगभग 50-60 मिलियन वर्ष है.

यरहैं, जॊ 12 हजार वर्ग किलॊमीटर में फैले हुए है. 70 किलॊमीटर लंबासियाचीन ग्लेशियर विश्च का दूसरा सबसे लंबा ग्लेशियर है। इसमें कई धार्मिक स्थल भी हैं. जैसे- हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गॊमुख, देव प्रयाग, ऋषिकेश, माउंट कैलाश, मनसरॊवर तथा अमरनाथ आदि. सिखों का प्रसिद्ध तीर्थ हेमकुंड साहिब और कई बौद्धमठ भी यहाँ स्थित हैं.

हिमालय के अन्य नाम-

हिमालय को कई नामों से जाना जाता है, जिनमें प्रमुख नाम है-

सागरमाथा, हिमाल, अन्नपूर्णा, गणेय, लांगतंग, मानसलू, रॊलवालिंग, जुगल, गौरीशंकर, कुंभू, धौलागिरी और कंचनजंघा आदि.

हिमालय की महत्ता-

हिमालय की महत्व के बारे में जितना कहा जाये कम है. इसकी महत्ता का अनुमान इसके परिचय से ही लगाया जा सकता है. हिमालय प्राकृतिक सुषमा और संस्कृतिक वैभव का घर है. इसकी गगन चुम्बी चोटियाँ सम्पूर्ण भारत भूमि को एशिया की ठंडी हवाओं से सुरक्षित रखती हैं और उत्तर भारत में वर्षा का कारण बनती हैं. यहाँ के हिमनदों से निलकर गंगा और ब्रम्ह्पुत्र जैसी नदियाँ भारत भूमि को सिंचित करती हैं. हिमालय की विस्तृत पर्वत श्रृंखला भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर में एक प्राकृतिक सीमा का निर्माण करती हैं. इसकी चोटियाँ दुश्मन के लिय एक चुनौती बनकर भारत को उत्तरी घुसपैठ से सुरक्षित रखती हैं. वहीँ आयुर्वेद के सम्बंधित तमाम जड़ी-बूटियाँ हिमालय पर पायीं जाती हैं. ये आयर्वेद आधारित अद्दोगों का आधार है.

कई कविओं ने भी अपने काव्य रचना में हिमालय का सहारा लिया है. जैसे-

कवि प्रदीप जी ने लिखा- “आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ये दुनियां वालों हिन्दुस्तान हमारा है.”

जय शंकर प्रसाद जी ने भी अपनी कविताओं में स्वतंत्रता का आह्वान करते हुए लिखा है- “हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती.”

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने भी लिखा है-

“मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार,दिव्य,गौरव विराट, पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!

मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्यभाल!”

हिमालय की व्यथा-

ऐसे में यदि हिमालय के भविष्य की बात करें, तो वैज्ञानिकों का मानना है कि, हिमालय 5-6 सेन्टीमीटर प्रतिवर्ष उत्तर दिशा की ओर खिसक रहा है. आने वाले दो सौ मिलियन साल में यह शिफ्ट हो सकता है. परन्तु इस अवधि से पहले भी कई संकट आ सकते हैं. इस दौरान यहाँ उथल-पुथल हो सकती है, एक्टिव होने के कारण हिमालयी क्षेत्रों में छोटे-बड़े भूकंप आते रहेंगे. चट्टानें कमजोर होने के चलते भू-स्खलन का खतरा बना रहेगा. ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ सकती है. नदियों के सूख जाने का खतरा पैदा हो सकता है. छोटे ज्वालामुखी फट सकते हैं. लाखों साल के इस बदलाव में समुद्र के भी जगह छोड़ने की आशंका है. वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों का आकलन है कि हर 300-400 साल में “लिटिल आइस एज” आती है. भरी मात्रा में बर्फ़बारी होती है. यह चक्र स्वयं को दोहराता रहता है. ऐसा ही आगे भी चलेगा.

हिमालय की हुकूमत को बचाने के उपाय-

जहाँ एक ओर हिमालय खतरे में है वहीँ उस पर निवास करने वाली जन जातियां भी खुद को असुरक्षित महसूस कर रही है. यूँ तो हिमालय समस्या के लिए कुछ हद तक प्रकृति ही जिम्मेदार है, परन्तु अधिकांशतः जिम्मेदारी हमारी है. पर्यावरण प्रदूषणों और जंगलों के अंधा-धुंध कटाव के कारण हिमालय की समस्या का प्रादुर्भाव हुआ है.

सुन्दर लाल बहुगुणा (मशहूर पर्यावणविद्) का मानना है कि, “हिमालयी नीति बनाकर उसे चोटी पर लिफ्ट करना होगा. मतलब पहाड़ के लोगों तक पहुँचाना होगा. गदेरों पर बिजली बनाने की छोटी परियोजनायें लगें और उनका संचालन गाँव वालों के जिम्मे ही कर दिया जाय. साथ ही इस तरह के पेड़ लगाए जाय, जिनसे मानव और पशुओं के लियए भोजन और चारे की व्यवस्था हो. अंग्रेजों ने निज हित और पैसा कमाने के उद्देश्य से पहाड़ में चीड़ लगाकर यहाँ के पर्यावरण को बिगाड़ने के काम किया. यहाँ पानी को बचाने की कोशिश नहीं की गई.”

डॉ. डीपी डोभाल (वैज्ञानिक, ग्लेशियोलाजी) का मानना है कि, “हिमालयी ग्लेशियर अन्य स्थानों के ग्लेशियर से भिन्न है. इनके पिघलने की दर 16-20 मीटर प्रतिवर्ष आंकी गई है. ग्लेशियर कहीं अल्प मात्रा में सिकुड़ रहें हैं तो कहीं एडवांस भी हो रहे हैं. जैसे- लद्दाख के ग्लेशियर. फिलहाल ग्लोबर वार्निग का बहुत असर नहीं दिखता. फिर भी मानवीय हस्तक्षेप से ग्लेशियरों के प्रभावित होने की आशंका तो है ही. यह हिमालय के लिए भी नुक्सान देह है. हिमालयी पर्यावरण में मानवीय हस्तक्षेप को का किय जाने की जरूरत है.”

चंडी प्रसाद भट्ट (पर्यावरण विशेषज्ञ) का कहना है कि, “ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी-ग्लेशियर टिके रहेंगे…” जरूरत एक बार फिर इस नारे को दोहराने की है. इस बात की भी कि पहाड़ में नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगाए जाए. इससे पानी की कमी से जूझ रहे पहाड़ को राहत मिलेगी. पहाड़ के लिय अलग से नीति की घोषणा की जाय, जो यहाँ की भौगोलिक परिस्थियों के अनुरूप हो. पहाड़ की आवश्यकता मैदानी क्षेत्र की आवश्यकता से सर्वदा भिन्न है. वनों का अंधाधुंध कटान हो रहा है, जिसे जल्द रोका जाना बेहद जरूरी है.”

रामसेतु और दूसरा हिमालय. दोनों की तरह सरकार ध्यान नही दे रही है. शायद इसी अपमान के कारण रामसेतु समुद्र में धंसा जा रहा है और हिमालय भी भारत से दूरी बना रहा है.

जय-हिंद जय-भारत

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